Friday, June 11, 2010

प्रणय निवेदन

कर सकता था खुलकर मैं भी तुमसे प्रणय निवेदन

पर सोचा मूक मेरा निमंत्रण सुन
सरिता सी तुम बह आयोगी
पग कंटक सब सह कर भी
सागर मन में मिल जाओगी

पर नयन तुम्हारे देख सके न अधरों का मेरे स्पंदन!

तुम कहती प्रत्यक्ष रूप से
मैने नहीं कभी कुछ बोला
लगता है जग के मानदंड पर
इस प्रेम को तुमने है तोला

यह प्रणय मूक अनूभूति है जो कहती सुनती दिल की धड़कन!

आयेगा वक्त कभी जब वो
खुद से भी तन्हा हो जाओगी
उस वक्त स्वयं की सांसो में
मेरे गीतों की खुशबु पाओगी

होगा यह अकाट्‌य सत्य कहता है मेरा पागलपन!

कभी सोचता मधुशाला जाकर
अपना सब गम धो लूंगा
तेरी यादों का सब गरल घूंट
पैमाने संग पी लूंगा

पर साकी में भी जाने क्यों होता तेरा ही 'अनुपम' दर्शन!!

3 comments:

  1. pehle ek 'KAR' chhoot gaya hai shayad...waise ek pravaahmayi aur laybaddh sundar rachna

    ReplyDelete
  2. दिलीप की तरह ही मैं भी विचार कर रहा हूँ कि एक ’कर’ शुरु में हो तो बेहतर..वरना बहुत बेहतरीन....


    कर सकता था खुलकर मैं भी तुमसे प्रणय निवेदन

    ReplyDelete