Wednesday, June 02, 2010

रिपोर्टर

रिपोर्टर

ख़ुशी की बात है. वेतन बढ़ गया. सभी एक दूसरे के बारे में जानने के लिए आतुर. खबर नवीसो के लिए ये बड़ी उपलब्धि ही मानी जाएगी. कॉर्पोरेट कल्चर के इस दौर में कोई दस तो बीस में ही खुश है, इसी अख़बार में और डिपार्टमेंट के कर्मचारी फिफ्टी प्लस से नीचे तो बात ही नहीं करते. लेकिन एडिटोरिअल यानि अख़बार की पहचान, के लिए ये पूर्वधारणा है कि इनकी तनख्वाह इस से अधिक नहीं हो सकती. हम सबसे अधिक काम करते हैं, अख़बार हमारे दम पर ऊपर और नीचे आता-जाता है. लेकिन फिर वही बात तनख्वाह ज्यादा नहीं मिलेगी. झांकते हैं एक रिपोर्टर की जिंदगी में.....
जब रिपोर्टर अपनी बीट पर जाता है तो वो अपने को शहंशाह समझता है, पुरे भोकाल में रहता है. जिले के डीएम और कप्तान को भी कुछ नहीं समझता है. उसे लगता है कि विभाग की गतिविधियाँ उसकी लिखी खबरों के इर्द-गिर्द घूमती है, उसने जो लिख दिया वो ब्रह्मा वाक्य हो गया. विभाग के एक दो छपास रोगी रिपोर्टर की महिमा को और बढ़ा कर बखान कर देते है. शाम को ऑफिस लौटते हुए वो फूला हुआ होता है.
अब दूसरा समय जब खबरे ऊपर वाले तय कर देते है. रिपोर्टर मन मसोस कर रह जाता है. चाहने वालो के फ़ोन आने शुरू हो जाते मेरा नाम, उनका नाम. बेचारा हाँ-हाँ करता रहता है. खुद को तैयार इस के लिए करता है कि सुबह भोकाल बनाये रखने के लिए क्या-क्या बहाने बनाने है. सब झेल कर थका मांदा घर लौट जाता है.
इसके बढ कहानी घर-घर की...
शादीशुदा है तो घर पहुँचते ही कलह शुरू. कभी ये ख़त्म कभी वो, इधर महीना अंत में है, जेब में कुछ ही बचा है, फिर भी जैसे तैसे काम चल जाता है.
क्वारों का हाल भी बुरा, दिन भर भूखे, रात में कहाँ जाये, कुछ अच्छे सम्बन्ध हुए तो दो-चार दिन कोई खिला पिला देगा. नहीं तो सस्ते ढाबे का रास्ता पकड़ लिया, रात तो कट गयी, फिर सुबह दो दिन पहने कपडे पहने और चल दिए...

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