कर सकता था खुलकर मैं भी तुमसे प्रणय निवेदन
पर सोचा मूक मेरा निमंत्रण सुन
सरिता सी तुम बह आयोगी
पग कंटक सब सह कर भी
सागर मन में मिल जाओगी
पर नयन तुम्हारे देख सके न अधरों का मेरे स्पंदन!
तुम कहती प्रत्यक्ष रूप से
मैने नहीं कभी कुछ बोला
लगता है जग के मानदंड पर
इस प्रेम को तुमने है तोला
यह प्रणय मूक अनूभूति है जो कहती सुनती दिल की धड़कन!
आयेगा वक्त कभी जब वो
खुद से भी तन्हा हो जाओगी
उस वक्त स्वयं की सांसो में
मेरे गीतों की खुशबु पाओगी
होगा यह अकाट्य सत्य कहता है मेरा पागलपन!
कभी सोचता मधुशाला जाकर
अपना सब गम धो लूंगा
तेरी यादों का सब गरल घूंट
पैमाने संग पी लूंगा
पर साकी में भी जाने क्यों होता तेरा ही 'अनुपम' दर्शन!!
pehle ek 'KAR' chhoot gaya hai shayad...waise ek pravaahmayi aur laybaddh sundar rachna
ReplyDeleteman gaye bhaiya... ati sundar manohari..
ReplyDeleteदिलीप की तरह ही मैं भी विचार कर रहा हूँ कि एक ’कर’ शुरु में हो तो बेहतर..वरना बहुत बेहतरीन....
ReplyDeleteकर सकता था खुलकर मैं भी तुमसे प्रणय निवेदन